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Friday, November 4, 2016

पतिदेव



अल्हड़झल्लीबेपरवाह
उलझी - सुलझी मैं मनमौजी

ठंड से ठिठककटु सत्य से सिसक रही
अवाक खड़ी मैं,  कुछ कही कुछ अनकही

तुम आएसंग धूप गुनगुनी ले आए
काली रातों मेंचाँद सी  रोशनी ले आए

तुम आए तो साज और शृंगार आया
हर दिन तीज और त्योहार आया

शोर और सन्नाटो के बीच फँसी
ले आए सूकूनभरी खामोशी

दबी दबी मुस्कानो से छीन
वापिस मेरी हँसी ले आए

बेबाँध नदी मे ठहराव आया
और थमे हुए शब्दों मे बहाव आया

तुम मेरे मकानमे घर लाए
और उड़ सकू वो पर लाए

किसी बदलाव की कोई माँग नही
अल्हड़ झल्ली बेपरवाह जैसी थी वैसी ही रही



Tuesday, September 20, 2016


एक यादों का पुलिंदा है या माँ तू अब भी ज़िंदा है़ ।

मेरे बनाए खाने में तेरे हाथों का स्वाद है जो कुछ सिखाया तूने, मुझे आज भी याद है।

तेरे चले जाने के बाद वो कपड़े बांट लिए हमनेहमसे सब छीना तेरी खुशबू नहीं छीनी ग़म ने ।

मेरे सो जाने के बाद भी, जो इन बांलों को सहलाती थींवो उँगलियाँ आज भी मुझे रातों को छू जातीं हैं ।

जब एक त्योहार पर तुम सा श़ृंगार किया आईने में, तुम्हारी ही छब का दीदार किया ।

मेरी हर बात में , तेरी ही आवाज़ हैमेरे हर काम में तेरा ही एहसास है ।

ना ख्वाब, ना ख्याल, ना यादों का पुलिंदा है 

 मेरी माँ  तू 

"मुझ" में जिंदा है ।