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Friday, November 4, 2016

पतिदेव



अल्हड़झल्लीबेपरवाह
उलझी - सुलझी मैं मनमौजी

ठंड से ठिठककटु सत्य से सिसक रही
अवाक खड़ी मैं,  कुछ कही कुछ अनकही

तुम आएसंग धूप गुनगुनी ले आए
काली रातों मेंचाँद सी  रोशनी ले आए

तुम आए तो साज और शृंगार आया
हर दिन तीज और त्योहार आया

शोर और सन्नाटो के बीच फँसी
ले आए सूकूनभरी खामोशी

दबी दबी मुस्कानो से छीन
वापिस मेरी हँसी ले आए

बेबाँध नदी मे ठहराव आया
और थमे हुए शब्दों मे बहाव आया

तुम मेरे मकानमे घर लाए
और उड़ सकू वो पर लाए

किसी बदलाव की कोई माँग नही
अल्हड़ झल्ली बेपरवाह जैसी थी वैसी ही रही



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