अल्हड़, झल्ली, बेपरवाह
उलझी - सुलझी मैं मनमौजी
ठंड से ठिठक, कटु सत्य से सिसक रही
अवाक खड़ी मैं, कुछ कही कुछ अनकही
तुम आए, संग धूप गुनगुनी ले आए
काली रातों में, चाँद सी रोशनी ले आए
तुम आए तो साज और शृंगार आया
हर दिन तीज और त्योहार आया
शोर और सन्नाटो के बीच फँसी
ले आए सूकूनभरी खामोशी
दबी दबी मुस्कानो से छीन
वापिस मेरी हँसी ले आए
बेबाँध नदी मे ठहराव आया
और थमे हुए शब्दों मे बहाव आया
तुम मेरे मकान, मे घर लाए
और उड़ सकू वो पर लाए
किसी बदलाव की कोई माँग नही
अल्हड़ झल्ली बेपरवाह जैसी थी वैसी ही रही
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